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दिल्ली में उप-राज्यपाल याने सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की कानूनी रूप से अवमानना…?

-ओमप्रकाश मेहता-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

केन्द्रीय गृह मंत्रालय के एक आदेश के माध्यम से दिल्ली की राज्य सरकार का मुखिया अब मुख्यमंत्री नहीं बल्कि उप-राज्यपाल महोदय होगें, क्या केन्द्र के इस विवादित आदेश को भविष्य के लिए लोकत्रंतीय प्रणाली पर खतरें के रूप में मान लिया जाए? क्योंकि सत्ताईस अप्रैल की अर्द्धरात्रि के बाद से दिल्ली में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार नहीं बल्कि केन्द्र द्वारा थोपी हुई ‘सरकार’ हावी हो चुकी है, वैसे तत्सम्बंधी विवादित अध्यादेश संसद ने लगभग एक माह पहले ही पारित किया था, जिसमें दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने इस अध्यादेश का जमकर विरोध किया था, कितने इसके बावजूद संसद के दोनों सदनों से यह अध्यादेश पारित होकर ‘कानून’ बन गया था, जिस पर बाद में राष्ट्रपति जी ने भी हस्ताक्षर कर दिए थे, अब दिल्ली की सरकार ‘उपराज्यपाल’ पर केन्द्रीत हो गई है और मुख्यमंत्री जी एक अनुशासित नौकरशाह बन चुके है।
यद्यपि केन्द्र सरकार के इस आदेश को अलग-अलग वर्गों में अपने-अपने नजरियों से देखा जा रहा है, राजनीतिक क्षेत्रों में जहां इसे ‘लोकतंत्र’ पर ‘राजतंत्र’ के अवैध् कब्जे के रूप में देखा जा रहा है तो प्रशासनिक क्षेत्रों में इसे केन्द्र में सत्तारूढ़ दल की कूटनीतिक चाल बताया जा रहा है, किंतु देश का बुद्धिजीवी वर्ग केन्द्र के इस आदेश को प्रजातंत्र के दो प्रमुख स्तंभों के बीच टकराव बता रहा है, इस वर्ग का कहना है कि आज जहां कोरोना महामारी को लेकर केन्द्र की भूमिका को लेकर जहां न्यायपालिका केन्द्र व राज्य सरकारों के खिलाफ तीखी से भी तीखी टिप्पणी करने में पीछे नहीं हट रही है और सरकारें इस दिशा में अपना बचाव ठीक से नहीं कर पा रही है, वहीं बुद्धिजीवियों का कहना है कि सरकार इस आदेश के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा तीन साल पहले दिए गए उस फैसले की कानूनी रूप से अवमानना कर रही है, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने स्पष्ट कहा था कि दिल्ली में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार ही सर्वोच्च है, उप-राज्यपाल को उस चुनी हुई सरकार के दैनंदिनी कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। अब केन्द्र ने अपने इस विवादित आदेश में स्पष्ट रूप से लिखा है कि ‘अब उपराज्यपाल ही दिल्ली की ‘सरकार’ होंगे और मुख्यमंत्री जी व उनकी सरकार को हर फैसले उनसे पूर्व अनुमति लेकर लागू करना होगें विधायी फैसलों की जानकारी पन्द्रह दिन पूर्व और प्रशासनिक फैसलों की जानकारी सात दिन पूर्व उपराज्यपाल को देनी होगी और उनकी अनुमति के बाद ही उक्त फैसले लागू हो पाएगें और यदि उपराज्यपाल उन फैसलों पर असहमति व्यक्त करते है तो उक्त फैसले लागू नहीं हो पाएगें।’
केन्द्र सरकार के इस आदेश ने एक ओर जहां देश की लोकतंत्री प्रणाली को भारी आद्यात पहुंचाया है, वहीं इस असंवैधानिक परिपाटी की शुरूआत देश की राजधानी से कर दी गई है और जिस कानून के तहत इसे लागू किया गया है, उसका नाम ‘राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन संशोधन कानून 2021’ दिया गया है। इस पर केन्द्र सरकार की मासूम सी दलील है कि इस आदेश के द्वारा उपराज्यपाल की शक्तियों व अधिकारों को स्पष्ट किया गया है, इससे अधिक कुछ नहीं है। जबकि दिल्ली के मुख्यमंत्री व उप-मुख्यमंत्री शुरू से ही इस अध्यादेश का यह कहकर विरोध कर रहे है कि यह देश की लोकतंत्री व्यवस्था खत्म करने का प्रयास है।
यद्यपि इस आदेश के लागू होने के बाद मुख्यमंत्री केजरीवाल तथा उप मुख्यमंत्री सिसोदिया की कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया सामने तो नही आई है, किंतु जब यह अध्यादेश संसद के विचाराधीन था, तब मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री जी ने इसका तीखा विरोध करते हुए इसके लागू होने पर सर्वोच्च न्यायालय के द्वार खटखटाने की बात अवश्य कही थी और यह तय है कि यदि शासन के इस आदेश को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाया जाता है तो स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय अपनी संविधान पीठ के फैसले की ही रक्षा करेगी, अब देखिये आगे… आगे होता है क्या? किंतु यह सही है कि केन्द्र के इस आदेश ने कई गंभीर विवादों को जन्म अवश्य दे दिया है।

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