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1 फीसदी का सुधार बनाम 99 फीसदी का बिगाड़

-राजेंद्र शर्मा-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

बेशक, असमानता का वायरस और कोविड का वाइरस, दोनों एक-दूसरे को ज्यादा से ज्यादा घातक बना रहे हैं। लेकिन क्या भारत की यही नियति थी? बेशक, नहीं। कोविड-19 का आक्रमण तो नहीं, पर असमानता के वायरस की बढ़ती संघातिकता जरूर, देश के सत्ताधारियों ने ही उसकी किस्मत में लिखी है और कथित आर्थिक सुधार के तीस सालों ने इसी कहानी को आगे बढ़ाया है।
वित्त मंत्री की हैसियत से मनमोहन सिंह द्वारा 24 जुलाई 1991 में पेश किए गए बजट से, भारत में कथित आर्थिक सुधारों की औपचारिक शुरूआत मानी जा सकती है। औपचारिक शुरूआत इसलिए कि इससे पहले, राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही आयात उदारीकरण समेत इस पैकेज के विभिन्न तत्वों की आजमाइश शुरू हो चुकी थी। फिर भी, 1991 के बजट में इन सारे तत्वों को समेट कर, एक नयी आर्थिक दिशा का व्यवस्थित रूप देकर पेश किया गया था, जो स्वतंत्रता के बाद से चले आ रहे नीतिगत रास्ते से महत्वपूर्ण ढंग से अलग होने को दिखाता था। और जैसा कि होना ही था, जल्द ही इस नये नीतिगत रास्ते की पूरी सैद्घांतिकी और उसके बचाव के तर्क भी सामने आ गए। इस प्रक्रिया में इन कथित सुधारों के लिए पूंजीपति वर्ग की ही नहीं, सत्ताधारी वर्ग से जुड़ी सभी राजनीतिक पार्टियों की आम सहमति और वास्तव में इससे पहले तक चली आ रही व्यवस्था के प्रति हमलावर आलोचना सामने आई। और जल्द ही मीडिया समेत जनसंवाद के सभी साधनों पर नियंत्रण के जरिए, इस आम-सहमति द्वारा हर प्रकार की असहमति को जबरन बाहर करके, खुद को इकलौते विवेकपूर्ण विचार के रूप में स्थापित भी कर लिया गया।
बहरहाल, अब जब इस ‘आर्थिक सुधार’ के तीन दशक पूरे हो चुके हैं, भले ही घिसा-पिटा लगे यह सवाल पूछा ही जाना चाहिए कि इन सुधारों से देश को क्या मिला है? वैसे इस सवाल को जरा सा बदलकर, यह भी पूछा जा सकता है कि इन सुधारों से देश का क्या बना है या देश कैसा बना है? बेशक, देश कैसा बना है, इसे तरह-तरह के आंकड़ों से भी समझा जा सकता है। मिसाल के तौर पर एक आंकड़ा तो यही कि एक तरफ आज देश की सरकार, देश भर में बड़े-बड़े होर्डिंग लगाकर और टीवी, अखबारों आदि में विज्ञापनों की मूसलाधार बारिश से, छाती ठोककर और गर्दन अकड़ाकर इसका प्रचार कर रही है कि 80 करोड़ भारतीयों को वह भोजन मुफ्त दे रही है, यह दूसरी बात है कि यह ‘कृपा’ प्राप्त करने वालों का वास्तविक आंकड़ा इससे काफी कम ही बैठेगा और जिसे ‘भोजन’ कहा जा रहा है, वह प्रतिव्यक्ति पांच किलो अनाज भर है और वह भी महामारी के चलते हुए लॉकडाउन के कुछ महीनों के लिए ही। यह 65 फीसद आबादी को सिर्फ जिंदा रहने के लिए, मुफ्त अनाज देना जरूरी होने को दिखाता है। और ठीक इसी दौरान, दूसरे छोर पर यह खबर आई कि इन सुधारों के दौरान ही उभरे दो नये भारतीय कारोबारी घराने, अंबानी और अडानी, एशिया के धनपति नंबर एक और धनपति नंबर दो बन गए हैं।
लेकिन, यह सिर्फ असमानता की मौजूदगी का मामला नहीं है। यह ऑक्सफेम की रिपोर्ट के शीर्षक का सहारा लें तो उस ‘असमानता के वायरस’ द्वारा की गई और बढ़ती तेजी से की जाती तबाही का मामला है, जिसे कोविड-19 के वाइरस ने और भी घातक बना दिया है। इसी तबाही का सबूत है कि 2020 के अप्रैल में यानी कोविड-19 की पहली लहर के शुरूआती दौर में, हर घंटे 1,70,000 लोग अपना रोजगार खो रहे थे। दूसरी ओर, उसी लॉकडाउन के दौरान भारतीय अरबपतियों की दौलत में 35 फीसद की बढ़ोतरी हो गई।
बेशक, असमानता का वायरस और कोविड का वाइरस, दोनों एक-दूसरे को ज्यादा से ज्यादा घातक बना रहे हैं। लेकिन क्या भारत की यही नियति थी? बेशक, नहीं। कोविड-19 का आक्रमण तो नहीं, पर असमानता के वायरस की बढ़ती संघातिकता जरूर, देश के सत्ताधारियों ने ही उसकी किस्मत में लिखी है और कथित आर्थिक सुधार के तीस सालों ने इसी कहानी को आगे बढ़ाया है। यह कोई संयोग नहीं है कि जिस चीन के अरबपतियों को पीछे छोड़कर, हमारे देश के मौजूदा शासन के लाड़ले, अंबानी तथा अडानी की जोड़ी ने एशिया में सबसे बड़े धनपति के आसन नंबर एक और दो पर कब्जा जमाया है, उसकी आर्थिक वृद्घि दर इसी दौर में, हमारे देश की वृद्घि दर के मुकाबले, कई गुना ज्यादा चल रही थी। वहां देश वृद्घि कर रहा था, यहां सबसे बड़े अरबपतियों की दौलत मेें वृद्घि हो रही थी। वहां देश कोविड से लड़ाई जीत रहा था, यहां अरबपति दुनिया में सबसे बड़े दौलतमंद होने की लड़ाई में, आगे निकल रहे थे।
और यह चमत्कार कैसे हुआ कि देश आर्थिक वृद्घि में नीचे जा रहा था और बड़े धनपति आगे से आगे। यह चमत्कार ही तो कथित नयी आर्थिक नीतियों का या कहना चाहिए कि भारत में ये नीतियां जिस रूप में आईं उसका, असली हासिल है। चाहे इसकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई हो, फिर भी इसकी ओर लोगों का ध्यान गया जरूर है कि महामारी के हमले के दौरान, जब आर्थिक गतिविधियां लॉकडाउन व अन्य पाबंदियों के चलते बिल्कुल ठप्प होने से लेकर आंशिक तक ही रही थीं और जीडीपी की वृद्घि दर चालीस साल में पहली बार नकारात्मक हो गई थी, तब शेयर बाजार जो कि मुनाफे की प्रत्याशा से ही संचालित होता है, निरंतर उछाल पर था, जब तक कि पेगासस घोटाले के रहस्योद्ड्ढघाटन ने दिल्ली की गद्दी को झकझोर नहीं दिया। यही आर्थिक गिरावट यानी देश की दौलत घटने के बीच भी, अरबपतियों की दौलत बढ़ने का राज है। देश की दौलत और अरबपतियों की दौलत में यह छत्तीस का आंकड़ा बनना ही नवउदारवादी सुधारों का असली हासिल है।
अचरज की बात नहीं है कि प्यू रिसर्च सेंटर के अनुमान के अनुसार, पिछले एक साल के दौरान भारत में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या 6 करोड़ से बढ़कर, 13 करोड़ 40 लाख हो गई है। वास्तव में दुनिया भर में गरीबों में हुई बढ़ोतरी में अपने 57.3 फीसद हिस्से के साथ, भारत गरीबी बढ़ाने में विश्व गुरु तो बन भी चुका है। इसी एक वर्ष के दौरान, हमारे देश में मध्य वर्ग का 59.3 फीसद हिस्सा खिसक कर गरीबी की दलदल में गिर चुका है।
याद रहे कि यह किस्सा सिर्फ महामारी के काल का नहीं है। यह तीन दशक से जारी सिलसिले का ही फल है। तभी तो राष्टड्ढ्रीय नमूना सर्वेक्षण के विस्तृत नमूना सर्वे के आंकड़े दिखाते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 2200 और शहरी क्षेत्र में 2100 कैलोरी आहार की मानक गरीबी की रेखा के पैमाने से, 1993-94 तक यानी कथित आर्थिक सुधार की शुरूआत के करीब, ग्रामीण क्षेत्र में 58 फीसद आबादी गरीबी की रेखा के नीचे रह रही थी और शहरी क्षेत्र में 57 फीसद। लेकिन, 2011-12 के इसके तुलनीय सर्वे के समय तक, ग्रामीण आबादी का गरीबी में डूबा हिस्सा बढ़कर 68 फीसद हो चुका था और शहरी आबादी में यही हिस्सा बढ़कर 65 फीसद!
लेकिन, जो आम देशवासियों की दशा में बिगाड़ था, उसे देश के लिए ‘‘सुधार’’ दिखाने के जुनून में, गरीबी के स्वीकृत पैमाने को दफ़्न कर, झूठे पैमाने गढ़े गए ताकि गरीबी में फर्जी गिरावट दिखाई जा सके। और उसके बाद, 2020 के दशक में गरीबी के बढ़ने की इस प्रक्रिया में और तेजी आई है, जिसका पता ग्रामीण भारत में सिर्फ भोजन ही नहीं वास्तविक उपभोक्ता खर्च में, 9 फीसद की शुद्घ कमी दर्ज होने से पता चलता है। यह दूसरी बात है कि कथित सुधारों के बचाव के लिए, अगर पहले गरीबी में फर्जी गिरावट दिखाने के लिए पैमाने में ही हेराफेरी का सहारा लिया जाता था, तो मोदी सरकार ने इसके लिए आंकड़ों को ही दबाने-छुपाने का सहारा लेना शुरू कर दिया। अचरज नहीं कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत आज ‘गंभीर’ रूप से भूख के शिकार देशों की श्रेणी में आता है।
लेकिन, देश और मेहनत की रोटी खाने वाली जनता की तरफ से मुंह मोड़कर ही नहीं बल्कि उन्हें लूटने पर टिका मुठ्ठी भर धनपतियों का विकास या लोकप्रिय मुहावरे में कहें तो 99 फीसद की कीमत पर 1 फीसद का विकास, कब तक चल सकता है? मेहनत-मजदूरी करने वालों की बढ़ती बेरोजगारी और बढ़ती गरीबी ने अब जीडीपी में वृद्घि के उस आंकड़े को भी नीचे खिसकाना शुरू कर दिया है, जिसे कथित आर्थिक सुधार के इस दौर में, देश की आर्थिक प्रगति का इकलौता संकेतक बना दिया गया था। मोदी के राज के सात साल की कहानी, इस संकेतक के भी नीचे खिसकते जाने की ही कहानी है, जो इन कथित सुधारों के 99 फीसद के लिए असह्यड्ढ बिगाड़ बन जाने की कहानी है। यह दूसरी बात है कि मोदी राज, जनता के बंटवारे की बढ़ती खुराक के जरिए, इन कड़वी सच्चाइयों को छुपाने के रास्ते से, अपनी सत्ता को ही नहीं, इन कथित सुधारों को भी बचाने की जी-तोड़ कोशिशें कर रहा है!
इन कथित सुधारों को मेहनतकश जनता के लिए ही नहीं, समग्रता में देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी नुकसानदेह साबित होने के बावजूद, अंबानियों तथा अडानियों और उनके भाई-बंदों के मुनाफे बढ़ाने के लिए बनाए रखने के लिए, जनता के बंटवारे की बढ़ती खुराक की जरूरत, तीन दशक के इन सुधारों की असली कमाई है। यह कोई संयोग नहीं है कि अब जबकि इन ‘सुधारों’ से पैदा हुए चैतरफा आर्थिक संकट से, इन सुधारों की पोल इतनी बुरी तरह से खुल चुकी है कि न सिर्फ इन सुधारों के ‘पिता’ माने जाने वाले मनमोहन सिंह ‘स्वास्थ्य और शिक्षा’ पर जोर दिए जाने की मांग कर रहे हैं, इन सुधारों के सबसे बड़े लाभार्थी, मुकेश अंबानी तक ‘बढ़ती असमानता’ से बचाने वाले रास्ते की बातें कर रहे हैंय बड़ी पूंजी और बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता के गठजोड़ पर टिकी मोदी सरकार, हठपूर्वक उसी रास्ते पर चलते रहने पर अड़ी हुई है। उसे यकीन है कि अपने विभाजनकारी खेल से वह, भयंकर आर्थिक बदहाली की ओर से भी जनता का ध्यान हटा सकती है और इस तरह देश को मेहनत की रोटी खाने वालों की बर्बादी के रास्ते पर आगे भी चलाती रह सकती है। इस उद्यम में उसे बड़ी पूंजी और उसके द्वारा नियंत्रित मुख्यधारा के मीडिया का, लगभग सम्पूर्ण समर्थन हासिल है। इस तरह, सुधार के इन तीन दशकों में अर्थव्यवस्था की दिशा को मेहनतकश जनता के हितों की चिंता से मुक्त कराने से शुरू कर, उस मुकाम पर पहुंचा दिया गया है, जहां अर्थव्यवस्था की दिशा प्रत्यक्षतः मेहनतकश जनता के खिलाफ है। इसके बावजूद इसी दिशा को जारी रखने के लिए, जनता के विभाजन के रास्ते से, जनतंत्र और चुनाव के अंकुश को ही बेमानी बनाया जा रहा है। लेकिन, उसकी चर्चा फिर कभी और। फिलहाल इतना ही कि देश और अधिसंख्य जनता के बिगाड़-वाला आर्थिक सुधार, तीस साल में गहरे संकट में पहुंच गया है।

 

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