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लोकतंत्र से गायब ‘लोक’

-पी. के. खुराना-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

दिवाली आ रही है, यानी दीये, रोशनी, पटाखे, फुलझडि़यां, मिठाई और खुशी। पर्व का उत्सव। भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी। बुराई पर अच्छाई की जीत का अनूठा पर्व। इस दौरान पटाखों से प्रदूषण न हो, इस नीयत से चंडीगढ़ प्रशासन ने आदेश जारी किया है कि चंडीगढ़ में पटाखों की बिक्री नहीं की जाएगी। पटाखों की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध के इस आदेश से बच्चों में निराशा हो तो भी आम नागरिकों को ऐसा कोई भी आदेश बहुत पसंद आता है जिससे शोर और प्रदूषण पर रोकथाम लग सके। शोर और प्रदूषण पर रोकथाम के हर कदम का स्वागत ही किया जाना चाहिए, लेकिन इसके एक और पहलू को नजरअंदाज करेंगे तो हमारी सोच अधूरी रहेगी। चंडीगढ़ एक छोटा-सा शहर है जहां चुने हुए प्रतिनिधियों के नाम पर पार्षद हैं जिनकी थोड़ी बहुत सुनवाई सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे सत्तारूढ़ दल के प्रतिनिधि हैं और जो विपक्ष में हैं वे भी कभी सत्ता में थे या उनका दल दोबारा सत्ता में आ सकता है। एक अदद सांसद भी हैं जो सत्तारूढ़ दल में प्रभावी होने के बावजूद इतनी प्रभावी नहीं हैं कि एमपीलैड के हिस्से आए धन को अपनी मर्जी से खर्च कर सकें, प्रशासनिक अधिकारी उस खीर में भी मक्खी डाल सकते हैं। यहां विधानसभा नहीं है, मुख्यमंत्री नहीं है, हां पंजाब के राज्यपाल चंडीगढ़ के पदेन प्रशासक हुआ करते हैं और प्रदूषण या शोर पर रोकथाम के ऐसे आदेशों के लिए उनकी सहमति लेना कोई मुश्किल काम नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि प्रशासनिक अधिकारी होशियार और बुद्धिमान ही नहीं, अनुभवी भी होते हैं, लेकिन वे न तो व्यवसायी हैं न ही व्यवसाय की समझ रखते हैं। उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं होती। इसी तरह से यह भी संभव नहीं है कि वे जिस मंत्रालय या विभाग का काम देख रहे हों, वे उस विभाग के विशेषज्ञ भी हों। वे उस विभाग के कानूनों और परिपाटियों के विशेषज्ञ हो सकते हैं, लेकिन वे उस क्षेत्र के भी विशेषज्ञ हों, ऐसा अक्सर नहीं होता, ऐसा संभव भी नहीं है। प्रशासनिक अधिकारियों की जानकारी और ज्ञान अक्सर अपने विभाग के काम करने के तरीकों तक ही सीमित होते हैं, उस क्षेत्र के बाहर दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी उन्हें नहीं होती। सरकारी कामकाज में प्रशासनिक अधिकारियों की चलती है, विशेषज्ञों की वहां कोई भूमिका नहीं है। चंडीगढ़ में प्रशासन के निर्णय प्रशासनिक अधिकारियों के ही होते हैं। प्रशासन के निर्णय अचानक भी आ सकते हैं।

हमारे देश में लोकतंत्र की स्थिति ऐसी है कि इसमें जनता की भागीदारी नहीं है, इसलिए प्रशासनिक फैसलों में जनता की पूछ भी नहीं है। पटाखों का कारोबार सीजनल काम है। नववर्ष, दिवाली, दशहरे और गुरुपर्व के अलावा पटाखे शादियों या पार्टियों में ही चलाए जाते हैं, इसलिए पटाखे बनाने वाली कंपनियां या तो एडवांस में आर्डर लेती हैं या फिर वे लगभग उतना ही माल तैयार करती हैं जिससे उनके पास स्टॉक बचा न रहे और उनका निवेश फंस न जाए। व्यापारी भी उतने ही पटाखे मंगवाते हैं जितने हाथों-हाथ बिक जाएं। पटाखे बच जाएं तो उसमें लगा धन फंसा रहेगा। व्यापार में भी एक लंबी चेन होती है। निर्माता, सीएफए, थोक व्यापारी, बड़े खुदरा व्यापारी और छोटे खुदरा व्यापारी आदि से बनी इस शृंखला में व्यापार को सुचारू रूप से चलाने के लिए आर्डर काफी पहले दे दिए जाते हैं। इसलिए इस आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता कि चंडीगढ़ में पटाखों की औसत खपत का सामान व्यापार की इस शृंखला में कहीं न कहीं किसी न किसी स्तर पर अटक जाएगा और एनपीए यानी नॉन-प्रोडक्टिव एसेट बन जाएगा और यह धन अगले साल तक फंसा रहेगा। एडवाइजरी कमेटियों की अहमियत न के बराबर है। अक्सर तो ऐसी समितियों का गठन ही नहीं होता, समितियां बन जाएं तो उनकी मीटिंग नहीं होती, मीटिंग हो जाए तो फैसले नहीं होते, फैसले हो जाएं तो उन्हें अमल में लाने की कोई बाध्यता नहीं है। ठन-ठन गोपाल की इस स्थिति से वाबस्ता हमारा लोकतंत्र कई तरह से नागरिकों के नुकसान करता है। चंडीगढ़ प्रशासन का हालिया निर्णय भी उसी अधूरे ज्ञान और एकांगी सोच का परिणाम है। पटाखों की बिक्री पर रोक लगाना गलत नहीं है, दिवाली के बहुत नजदीक ऐसा कोई निर्णय व्यापारियों पर थोप देना गलत है। यही निर्णय और दो महीने पहले लिया जाता तो व्यापार का नुकसान न होता, लेकिन व्यापार के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ प्रशासनिक अधिकारी अपने इस अच्छे निर्णय के लिए खुद ही अपनी पीठ थपथपा रहे होंगे, बिना यह समझे कि उनके इस निर्णय से व्यापार को नुकसान हुआ है और व्यापार का नुकसान देश की अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करता है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के घाटे सरकार भरती है।

सैकड़ों-करोड़ के निवेश वाले व्यवसाय वाली कंपनियों के घाटे की क्षतिपूर्ति सरकारी धन से होने के उदाहरण भी बहुत हैं, लेकिन छोटे और मझोले व्यवसायी के घाटे की स्थिति में किसी क्षतिपूर्ति का प्रावधान नहीं है। मेरी चिंता का कारण यह है कि चंडीगढ़ प्रशासन के हालिया निर्णय से सबसे ज्यादा नुकसान छोटे व्यापारियों का ही होगा। यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारी नौकरशाही असंवेदनशील और बेलगाम है। अपने अच्छे-बुरे काम करवाने के लिए वरिष्ठ राजनीतिज्ञ तक भी नौकरशाही पर निर्भर हैं। राजनीति में सफलता के लिए नौकरशाही का सहयोग आवश्यक है। नौकरशाह अपनी इस ताकत से वाकिफ हैं, पर अच्छी पोस्टिंग, प्रमोशन और अपने बच्चों की सैटलमेंट के लिए वे बहुत कुछ राजनीतिज्ञों पर निर्भर हैं। इसलिए राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों ने गठजोड़ कर लिया है और दोनों ही बेलगाम हो गए हैं। परिणाम यह हुआ है कि लोकतंत्र में तंत्र हावी हो गया है और लोक गायब हो गया है। शासन-प्रशासन में जनता की भागीदारी न होने का परिणाम यह है कि या तो अच्छे निर्णय ही नहीं होते और अगर कोई निर्णय अच्छा हो तो भी उसका कार्यान्वयन इस ढंग से होता है कि जनता को उसका लाभ नहीं मिल पाता। होना तो यह चाहिए कि प्रशासनिक अधिकारी जिस विभाग या मंत्रालय से जुड़े हैं, वे उस क्षेत्र के विशेषज्ञों से नियमित संपर्क रखें, राय लें, तब नीतियां बनाएं। सही सूचना के अभाव में अपने विचार को ही सच मान लेने की भूल हम अक्सर करते हैं। प्रशासनिक क्षेत्र में ऐसी भूल बहुत भारी पड़ती है क्योंकि यह पूरे समाज का नुकसान करती है। बड़ी-बड़ी बातें तब बेमानी हो जाती हैं जब वे जमीनी सच को नहीं पहचानतीं। आज हमारा देश इसी व्याधि से ग्रस्त है। इसीलिए ऐसा हो पाता है कि पहली नजर में अच्छे दिखने वाले ऐसे फैसले ले लिए जाते हैं जो असल में अच्छे नहीं हैं और जिनका दूरगामी प्रभाव नकारात्मक होता है। हमें इसी पर विचार करने की आवश्यकता है कि इस व्याधि से छुटकारा कैसे पाएं और कैसे देश के लोकतंत्र को लोकान्मुखी बनाएं, जनहितकारी बनाएं और देश को मजबूत करें। इसी में जनता की, समाज की और देश की भलाई है।

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