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सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से प्रेरणा

-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री-

-: ऐजेंसी अशोक एक्सप्रेस :-

भारतीय चिंतन व संस्कृति में मानव कल्याण की कामना की गई। इसमें कभी संकुचित विचारों को महत्व नहीं दिया गया। समय-समय पर अनेक संन्यासियों व संतों ने इस संस्कृति के मूल भाव का सन्देश दिया।

सभी ने समरसता के अनुरूप आचरण को अपरिहार्य बताया। इसके साथ ही राष्ट्रीय स्वाभिमान पर भी बल दिया गया।

भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विचार व क्षेत्र व्यापक रहा है। राष्ट्रीय स्वाभिमान किसी देश को शक्तिशाली बनाने में सहायक होता है। तब उसके विचार पर दुनिया ध्यान देती है। भारत ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्रसंघ में किया था। इस प्रस्ताव को न्यूनतम समय में सर्वाधिक देशों का समर्थन मिला था। भारत ने कभी अपने मत पर प्रचार तलवार के बल पर नहीं किया। देश में इसी विचार के जागरण की आवश्यकता है।अयोध्या में श्री राम मंदिर का निर्माण व भव्य श्री काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में है। स्वामी विवेकानन्द ने ऐसे ही राष्ट्रीय स्वाभिमान के जागरण का विचार दिया था। उन्होंने परतंत्र भारत को राष्ट्रीय गौरव का स्मरण दिलाया था। इसके माध्यम से उन्होंने न समर्थ भारत का स्वप्न देखा था। वह मानते थे कि विश्वगुरु होने की क्षमता केवल भारत के पास है। इस तथ्य का विस्मरण नहीं होना चाहिए।

उन्होंने दुनिया को भारत की शाश्वत और मानवतावादी संस्कृति का ज्ञान दिया। विश्व ने विस्मय के साथ उनको सुना। उन्होंने पश्चिमी देशों को बता दिया कि भारत राजनीतिक रूप से परतंत्र हो सकता है, लेकिन विश्व गुरु को सांस्कृतिक रूप से कभी गुलाम नहीं बनाया जा सकता। स्वामी विवेकानन्द के प्रत्येक ध्येय वाक्य भारतीय संस्कृति उद्घोष करने वाले है। उनसे संबंधित समारोह उत्सव से विचारों की प्रेरणा मिलती है। उनका व्यक्तित्व व कृतित्व राष्ट्रवाद की प्रेरणा देता है। जिस प्रकार पावर हाउस से विद्युत का प्रवाह होता है और अंधेरे में रोशनी फैलती है। उसी प्रकार विवेकानन्द का स्मरण वैचारिक ऊर्जा का संचार करता है,जिससे अज्ञानता का अंधकार दूर हो जाता है। उन्होंने विश्व में भारत की सांस्कृतिक पताका फैलाई थी। दुनिया को भारत की शाश्वत और मानवतावादी संस्कृति का ज्ञान दिया। विश्व ने विस्मय के साथ उनको सुना। उन्होंने पश्चिमी देशों को बता दिया कि भारत राजनीतिक रूप से परतंत्र हो सकता है, लेकिन विश्व गुरु को सांस्कृतिक रूप से कभी गुलाम नहीं बनाया जा सकता। विश्व और मानवता का कल्याण भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ही हो सकता है।

विवेकानंद जी सच्चे महापुरुष थे। उनका कोई आलोचक नहीं हुआ। उन्होंने भारतीय संस्कृति की ध्वज पताका विश्व में फहराई। भारत के बारे में कहा जाता है कि ये अनेकता में एकता का देश है, यहां अलग खानपान, पहनावा अलग है। राष्ट्रीय युवा महोत्सव जैसे आयोजनों से ये अनेकता एकता में बदल जाती है। सरकार ने प्रयागराज कुम्भ का सफल आयोजन किया था। इसमें उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से अधिक लोग सहभागी हुए थे। देश-विदेश से करीब पच्चीस करोड़ लोग संगम स्नान हेतु आये थे। अपने पूर्वजों, सांस्कृतिक परम्पराओं पर गौरव की अनिभूति होनी चाहिए। भारत राष्ट्र बनने की प्रक्रिया कभी नहीं रहा। यह शाश्वत रचना है।इसका उल्लेख विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में भी है। इसमें कहा गया कि भारत हमारी माता है हम सब इसके पुत्र है। राष्ट्र की उन्नति प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। जो लोग भारत को नही जानते वो लोग भारत के बारे में गलत बात षड्यंत्र करके भारत को नक्सलवाद, उग्रवाद आतंकवाद में धकेलने का प्रयास करते है। विष्णु पुराण में कहा गया कि यह भूभाग देवताओं के द्वारा रची गयी है।

उत्तर प्रदेश के मेरठ और हाथरस से स्वामीजी का जुड़ाव रहा है। मेरठ में विवेकानन्द किराए के मकान में अखण्डानन्द के साथ रहते थे। पुस्तकालय से प्रतिदिन किताब लाते फिर लौटा देते थे। पांच दिन तक यह क्रम चला। एक दिन लाइब्रेरियन ने पूछ लिया कि किताबों का करते क्या हो। स्वामी विवेकानन्द ने सभी किताबों की विस्तृत जानकारी दे दी। हाथरस में स्टेशन की बेंच पर स्वामी विवेकानन्द बैठे थे। स्टेशन मास्टर उन्हें घर ले गए। वह तीन दिन से ज्यादा रुकते नहीं थे। स्टेशन मास्टर इतने प्रभावित हुए कि उनके शिष्य बन गए। स्वामी जी ने उन्हें कुलियों के यहां से भिक्षा लाने को कहा। आगे चलकर वह स्टेशन मास्टर स्वामी सदानन्द बने। इस प्रकार उत्तर प्रदेश के मेरठ और हाथरस से स्वामी विवेकानन्द की स्मृति जुड़ी है।

स्वामी विवेकानन्द ने देश व दुनिया में लोगों को नई सोच और नई दिशा दी। उन्होंने देशवासियों में स्वाभिमान व राष्ट्रीय चेतना का संचार किया तथा भारतीय वेदांत दर्शन और अध्यात्म पर सारे विश्व के सामने अपने विचार रखे। वह ऐसे समाज की कल्पना करते थे, जिसमें धर्म या जाति के आधार पर कोई भेदभाव न हो। स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद में जो व्याख्यान दिया उससे पूरे विश्व में भारत एवं भारतीयता की एक छवि बनी थी। उस समय उनकी अवस्था मात्र तीस वर्ष थी। भारत उस समय गुलाम था। विश्व में भारतीयों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। अच्छे होटलों में भारतीयों का प्रवेश वर्जित था। स्वामी विवेकानन्द जी को शिकागो में बोलने के लिए मात्र तीन मिनट का समय दिया गया था। लेकिन उनके प्रारंभिक संबोधन में ही भारतीय संस्कृति का व्यापक स्वरूप निखर कर सामने आ गया। विवश होकर उनका समय बढ़ाया गया। पश्चिमी संस्कृति में तो समाज में लेडीज व जेंटलमेन का ही संबोधन दिया जाता है। उनके स्वाभिमान और अभिव्यक्ति के कारण आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण हुआ।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि यदि भारत को जानना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानन्द को पढ़िये। स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञान और शब्दों के आधार पर सबका सम्मान प्राप्त किया। धार्मिक एवं सांस्कृतिक राजदूत के रूप में जब उन्होंने शिकागो में अपनी बात रखी तो पूरा माहौल बदल गया। भाईयों-बहनों के सम्बोधन से लेकर उन्होंने भारतीय संस्कृति की अवधारणा ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात कहकर भारत को ऐसे देश में नई पहचान दिलाई, जहाँ भारतीय लोगों का सम्मान नहीं होता था। स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय विचारों के अनुरूप विश्व को एक परिवार बताया। यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों को समाहित करने की क्षमता है। संसद के द्वार पर लिखा यह श्लोक आज भी संसद में प्रवेश करने वालों को प्रेरणा देता है कि बिना भेदभाव के काम करें तथा पूरे विश्व को एक परिवार के रूप में देखें।

स्वामी विवेकानन्द ने अल्प समय में पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान बनाई।। पश्चिमी सभ्यता के लोग भारतीय उदारता की कल्पना ही नहीं कर सकते थे। स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञान और शब्दों के आधार पर सबका सम्मान प्राप्त किया। धार्मिक एवं सांस्कृतिक राजदूत के रूप में जब उन्होंने शिकागो में अपनी बात रखी तो पूरा माहौल बदल गया। उन्होंने भारतीय संस्कृति से विश्व के लोगों को अवगत कराया। जेएनयू में अबतक जिनका वैचारिक वर्चस्व रहा, वह अन्यत्र से प्रेरणा ग्रहण करते थे। इसलिए भारत विरोधी नारों पर भी यहां युवा व प्रौढ़ विद्यार्थियों को नाचते देखा गया। इनके समर्थन में राजनीतिक दलों में भी होड़ रहती थी। यह वोटबैंक का नजरिया था। लेकिन पिछले कई वर्षों से यहां का माहौल धीरे-धीरे बदल रहा है। यहां स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमा स्थापित की गई। अब स्वामी विवेकानन्द जी की प्रतिमा से भी राष्ट्रभाव की प्रेरणा मिल रही है। स्वामी विवेकानन्द ने परतंत्र भारत को राष्ट्रीय गौरव का स्मरण दिलाया था। इसके माध्यम से उन्होंने न समर्थ भारत का स्वप्न देखा था। वह मानते थे कि विश्वगुरु होने की क्षमता केवल भारत के पास है। इस तथ्य का विस्मरण नहीं होना चाहिए।

विवेकानन्द का स्मरण वैचारिक ऊर्जा का संचार करता है, जिससे अज्ञानता का अंधकार दूर हो जाता है। उन्होंने विश्व में भारत की सांस्कृतिक पताका फैलाई थी। दुनिया को भारत की शाश्वत और मानवतावादी संस्कृति का ज्ञान दिया। विश्व और मानवता का कल्याण भारत की वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ही हो सकता है।

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