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जस्टिस बुलडोज़र!

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

अब कानून और न्याय की स्वयंभू व्याख्या करने वाली एक और जमात पैदा हो गई है-जस्टिस बुलडोज़र। कृपया न्यायाधीश और न्यायपालिका हमें इन शब्दों के लिए क्षमा करें, क्योंकि उन्हें अपमानित करने या छोटा आंकने की हमारी कोई मंशा नहीं है। जस्टिस बुलडोज़र उप्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि मप्र, गुजरात, असम, त्रिपुरा और राजधानी दिल्ली में भी ऐसा ही न्याय (?) किया जा रहा है। लोगों के घर ध्वस्त किए जा रहे हैं और रोजी-रोटी के साधनों, ठिकानों को ‘मलबा’ बनाया जा रहा है। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मनमोहन सिंह ने बेहद खूबसूरत उपमा दी है कि पहले फांसी दे दी जाए और बाद में अदालत में ट्रायल चलता रहे। जस्टिस बुलडोज़र ने प्रयागराज में ऐसा ही इंसाफ किया है। बेशक जावेद मुहम्मद ने पत्थरबाजी की साजि़श रची होगी, वह दंगा-सरीखी स्थितियों का ‘मास्टरमाइंड’ होगा, लेकिन किसी भी अदालत ने अभी उसे ‘अपराधी’ घोषित नहीं किया है। अदालत में ट्रायल ही नहीं चला, लेकिन उसके घर पर बुलडोज़र चलाकर ‘मलबा’ कर दिया गया। एक परिवार अचानक ही बेघर हो गया। उस घर में मासूम और बेगुनाह परिजन भी रहते थे। देश के प्रधानमंत्री गरीबों के सिर पर छत, यानी पक्के मकान, का बंदोबस्त कर रहे हैं, लेकिन उप्र में पत्थरबाजी, हंगामे, हिंसा की सजा जस्टिस बुलडोज़र अपने आप तय कर रहे हैं।

न अदालत, न अपील, न कोई दलील और न ही वकील….! जस्टिस बुलडोज़र ने पूरी संवैधानिक व्यवस्था पर ही बुलडोज़र चलवा दिए। सर्वोच्च अदालत के तीन पूर्व न्यायाधीशों, दिल्ली और इलाहाबाद उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों समेत कुछ और पूर्व न्यायाधीशों तथा न्यायिक हस्तियों ने इस तरह बुलडोज़र चलाने के फैसले को असंवैधानिक और गैर-कानूनी करार दिया है। बेशक निर्माण ‘अवैध’ ही क्यों न हो! यह कानून के राज के साथ बर्बर व्यवहार है। औसत नागरिक के मौलिक अधिकारों को ही कुचला जा रहा है। जस्टिस बुलडोज़र को ये अतिरिक्त न्यायिक विशेषाधिकार किसने दिए हैं? इस संदर्भ में देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना को पत्र-याचिका भेजकर स्वतः संज्ञान लेने का आग्रह पूर्व न्यायिक हस्तियों ने किया है। बहरहाल हम कानून और संविधान के विशेषज्ञ तो नहीं हैं, लेकिन जस्टिस बुलडोज़र से जरूर जानना चाहेंगे कि संविधान के किस अनुच्छेद और अध्याय में यह व्याख्या है कि यदि कोई पत्थरबाजी, हिंसक आयोजन का भी, आरोपित है, तो उसका घर ध्वस्त कर ‘मलबा’ बना देना चाहिए? कानून कुछ भी कहता हो, लेकिन वह इतना अनैतिक और इनसान-विरोधी नहीं हो सकता कि किसी का आशियाना ही उजाड़ दे। हत्या के अभियुक्त तक के घर ध्वस्त नहीं किए गए हैं। उससे जघन्य अपराध पत्थरबाजी नहीं हो सकता।

यदि इसी तरह बुलडोज़र चलने लगा, तो संविधान, अदालत, न्यायपालिका की जरूरत ही क्या है? उन पर ताला लटका देना चाहिए। बुलडोज़र ही सुपर चीफ जस्टिस नहीं है। यह भी विचारणीय पहलू है कि जिन अदालतों के पास ‘न्याय’ देने का संवैधानिक विशेषाधिकार है, दरअसल वे ही लेट-लतीफ हैं। मप्र के खरगोन में जो विध्वंस किए गए थे, अभी तक अदालती निर्णय नहीं आया है। दिल्ली के जहांगीरपुरी में टकराव के हालात पैदा होने के बाद बुलडोज़र चलाया गया था, लेकिन सर्वोच्च अदालत ने उस पर रोक लगा दी। वह अप्रैल माह का मामला था और अब जून आधा निकल चुका है, लेकिन आगे की कार्रवाई गायब है। सुनवाई की तारीख अगस्त में है। बीते कुछ सप्ताह से नगर निगम के अधिकारी ऐसे फैसले ले रहे हैं कि बुलडोज़र ही अंतिम नियति बनकर रह गया है। यह बुलडोज़र कानून के राज पर बहुत खतरनाक सवाल चस्पा कर रहा है। अब जो लोग बेघर हुए हैं, उन्हें न्याय कब मिलेगा? रिश्तेदारों के घर वे कब तक रह सकेंगे? याचिकाएं तो सर्वोच्च अदालत में भी दाखिल की गई हैं, लेकिन जस्टिस बुलडोज़र वाली व्यवस्था पर अदालतें तुरंत निर्णय ले सकेंगी? अदालतें ही जस्टिस बुलडोज़र के ‘राक्षसी पंजों’ वाले पहियों को रोक सकती हैं। कोई मुख्यमंत्री, कोई प्रशासनिक अधिकारी इतना दुस्साहस नहीं कर सकते कि अदालत के फैसले को नजरअंदाज़ कर दें, लिहाजा अब गेंद न्यायपालिका के पाले में है।

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